विधा सोंनेट, शकुंतला

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निषाद  कन्या    सम  लौहावर्णी    देह    सुडौल   दिव्यांगनी राजपुत्री   सम    दर्पित  काया    ज्यों   मेघ  मंडित   तरंगनी । कठोर हृदया  धरा मध्य  इक करुण कुण्डिका ज्यों छुपी हुई गहन  श्यामल  विमल  नीर    तरौच्छादित   झील  ढकी  हुई । मुखचन्द्र पर  दृग पट्टिकाएं   हैं बन्द चाप  दीर्घ  संधान किये किसलय  शय्या सोये मधुप  ज्यों मकरन्द  मदिरा पान किये । अहा तरुणी की आरुणि आभा मोहित मोर मृग खग शतदल ज्यों देव प्रतिमा निरिख निरिख  आनन्द पाते सन्तन मन तल । वन  कुमारी  दुष्यत  ब्याहता    गन्धर्व  प्रेम   कण्ठ  हार  भी चुन  रही  पुष्प  कलिकाएं   किये  कुन्तल  सुमन  श्रृंगार  भी । प्रियतम शशि  रख  हृदय व्योम  दीप्त हुई शकुंतला विभावरी आँचल  कोने  बंधी   मुद्रिका    फिर-फिर  खोल  रही  बावरी । पर  प्रेम  पात्र  से  सुधा  तिक्त   पीकर  हृदय  कुछ हारा हुआ विकल चपल  है  अन्तःकरण   मन दिनमान   अंधियारा हुआ ।

रजनीचरों की गाथा

रजनीचरों की गाथाओं में
नव विहान नहीं होते,
पाषाण प्रतिमाओं के भीतर
मन प्राण नही होते,
देह का मरना कहाँ मरना
भाव का मरना मृत्यु है,
आत्म साधना करने वाले,
कभी अवसान नही होते।
मृतप्रायः शैशव काल
शिशु शीश भी नत अवनत,
ममता के सीने में विधाता
हाय वेदना भरी अनन्त,
हृदय चीत्कार रहा,
उत्थित आवेशित मुख मण्डल
आघात प्रबल हुआ जननी
बुझने को आभा मण्डल
हर स्तम्भित शिला को आहिल्या करने
श्रीराम नहीं होते।
किस गृहस्थ का घर धरा पर जहाँ कष्ट
मेहमान नही होते।।

:- ⇨ रमेश विनोदी

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